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सिनेमा

क्यों न फटा धरती का कलेजा, क्यों न फटा आकाश

अरविंद कुमार


आर.के. स्टूडियोज के मुख्य ब्लाक में पहली मंजिल पर छोटे से फिल्म संपादन कक्ष में राज कपूर और मैं नितांत अकेले थे। उन के पास मुझे छोड़ कर शैलेंद्र न जाने कहाँ चले गए।

1963 के नवंबर का अंतिम या दिसंबर का पहला सप्ताह था। दिल्ली से बंबई आए मुझे पंद्रह-बीस दिन हुए होंगे। टाइम्स आफ इंडिया संस्थान के लिए 26 जनवरी 1964 गणतंत्र दिवस तक बतौर संपादक मुझे एक नई फिल्म पत्रिका निकालनी थी। बंबई मेरे लिए सिनेमाघरों में देखा शहर भर था। फिल्मों के बारे में जो थोड़ा बहुत जानता था, वह कुछ फिल्में देखने और सरिता कैरेवान में उन की समीक्षा लिख देने तक था। अच्छी बुरी फिल्म की समझ तो थी, लेकिन वह अच्छी क्यों है, और कोई फिल्म बुरी क्यों होती है - यह मैं नहीं जानता था। फिल्म वालों की दुनिया क्या है, कैसी है, कैसे रहती है, कैसे चलती है, वे फिल्में क्यों और कैसे बनाते हैं - यह सब मेरे लिए अभी तक अनपढ़ी किताब था।

उस भरी-पूरी गुंजान दुनिया में मेरे दो ही हीरो थे। एक : गीतकार शैलेंद्र। दो : निर्दशक-निर्माता-अभिनेता राज कपूर।

शैलेंद्र यानी जन नाट्य संघ (इप्टा) के सक्रिय सदस्य, जिन्होंने इप्टा का यह थीम गीत लिखा था -

तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर
तू जिंदा है, तू जिंदगी की जीत पर यकीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।
ये गम के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएँगे गुजर, गुजर गए हजार दिन,
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार कि नजर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।

तू जिंदा है, तू जिंदगी की जीत पर यकीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।
सुबह और शाम के रंगे हुए गगन को चूम कर,
तू सुन जमीन गा रही है कब से झूम झूम कर,
तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।

तू जिंदा है, तू जिंदगी की जीत पर यकीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।
हजार वेश धर के आई, मौत तेरे द्वार पर,
मगर तुझे ना छल सकी चली गई वो हार कर,
नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमंग,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।

और राज कपूर यानी मेरी नजर में सर्वोत्तम निर्दशक-निर्माता-अभिनेता। राज की हर फिल्म मुझे अच्छी लगती थी। राज का अभिनय, राज की विचारधारा, फिल्मों के जरिए समाज को झकझोर देने की राज की ताकत। और इस ताकत के पीछे शैलेंद्र के गीतों का जो योगदान था, वह भी मैं जानता था। मेरा सौभाग्य ही था कि उस दुनिया में मेरी पहली निजी मुलाकात शैलेंद्र जी से हुई और उन के जरिए राज कपूर से। उस शाम हम आर.के. स्टूडियोज पहुँचे तो संदेश मिला कि वह मुझे सीधे उन के संपादन कक्ष में ले आएँ। मुझे वहाँ छोड़ कर वह पता नहीं कहाँ चले गए।

तो अब उस छोटे से कमरे में बस राज कपूर और मैं ही थे। मैं उन का फैन और वह मेरे हीरो। और भी बहुत कुछ था। राज कपूर के खिले मुसकाते चेहरे पर एक तपाक स्वागत की खुली चमक। और मूवियोला मशीन। फिल्म संपादन का उन दिनों का एक यंत्र या उपकरण। फिल्म शौटों के गोल डिब्बे अलमारी में रखे थे। मूवियोला के आसपास फिल्म शौटों की पट्टियाँ लटक रही थीं। कमरा पूरी तरह साउंड प्रूफ था। और धूल प्रूफ भी। धूल के एक कण का प्रवेश भी वर्जित था। फर्श पर मोटा रोएँदार कालीन था जो भूलेभटके भीतर आ जाने वाले धूल कण को अपने में समेट लेता था। कमरे में घुसने से पहले जूते चप्पल बाहर छोड़ देने होते थे।

यह सब मेरे लिए बिल्कुल नया था। जादुई। संगम फिल्म की शूटिंग उन दिनों नहीं हो रही थी। ऐसे में राज हाल ही में उस के फिल्मांकित दृश्यों का संपादन कर रहे थे। पत्र-पत्रिका का संपादन क्या होता है - यह मैं जानता था। फिल्मों का भी संपादन होता है - यह मैं फिल्मों में संपादक का नाम पढ़ पढ़ कर जानता था। फिल्म में शौट होते हैं। यह पता था। पर शौट होता क्या बला है - यह मुझे पता नहीं था। और यह भी पता नहीं था कि राज कपूर की किसी भी फिल्म में निर्देशक, लेखक, गीतकार, संगीतकार, संपादक कोई भी हो राज कपूर भी यह सब होता है। इस का पहला आभास मुझे उस शाम हुआ। वह हरफन 'मौला' नहीं, हरफन 'मालिक' थे - यह मैं ने धीरे धीरे जाना।

राज ने औपचारिकता में अधिक समय नहीं लगाया। संगम का संपादन करने और मुझे दिखाने लगे। फिल्म शौटों की जो पट्टियाँ वहाँ चुटकियों से झूल रही थीं, वे संगम के झील में नौकायन वाले दृश्य के कई शौट थीं। मूवियोला में उस नौकायन दृश्य का अभी तक अपूर्ण संपादित अंश चढ़ा था। राज ने मुझे वह दिखाया। उस में कभी एक नाव तिरछी बल खाती बाएँ से दाएँ जा रही थी, कभी सीधे, कभी कई नावें हमारी तरफ आ रही थीं। कहीं वैजयंती माला का एकल शौट था, कभी राज के साथ, या राजेंद्र कुमार के साथ। (मुझे तो इतना सब काफी लग रहा था। यह मैं ने मुँह से कुछ नहीं कहा।) पर राज संतुष्ट नहीं थे। झूलती किसी एक पट्टी को उतार कर वह मूवियोला में लगाते, असंतोष के भाव से उतारते, फिर दूसरी लगाते। फिर वही असंतोष। उन्होंने बताया कि वह किसी ऐसे शौट की तलाश में हैं, जो दृश्य के बहाव को बीच में एक भिन्न दिशा दे सकें ताकि दर्शक की आँख को कुछ भिन्न मिले, ब्रेक मिले। काफी देर यह सिलसिला चलता रहा। आखिर पूरी तरह असंतुष्ट वह उठे, बोले, 'चलो, किसी और समय वह इस दृश्य को अंतिम रूप दूँगा। चलो, बाहर चल कर बैठते हैं।'

यह जो बाहर था, वह उसी संपादन कक्ष से सटा लाल मखमल की चौड़ी गदीली सीटों की तीन-चार पंक्तियों वाला बीस-तीस दर्शकों के लायक आडिटोरियम था। तब तक की मेरी भाषा में छोटा सा सिनेमाघर। सीटों से काफी दूरी पर परदा था। हम दोनों बीच की दो सीटों में धँस गए। राज कपूर की सीट के साथ ही रखा था एक टेलिफोन।

यहाँ शुरू हुआ राज कपूर का और मेरा एक दूसरे को निजी तौर पर समझने और परखने का, निस्संकोच बातचीत, का दौर। राज ने कहा, 'हमारे पीछे मशीन आपरेटर के पास उनकी सभी फिल्मों के गीतों के संकलन हैं। मैं जो भी गीत देखना चाहूँ, उस का नाम लूँ।' मैंने कहा कि मैं आवारा फिल्म का वह गीत देखना चाहता हूँ जिस में जब जज रघुनाथ अपनी गर्भवती पत्नी को जग्गा डाकू के अड्डे पर चार दिन रहने के अपराध पर निकाल देता है, तो बरसाती रात में सड़क पर दुकान के थड़े पर बैठे भैया लोग गा रहे हैं - गीत के बोल तो मुझे याद नहीं, पर कुछ ऐसे हैं - किया कौन अपराध त्याग दई सीता महतारी।

राज कपूर चौंक गए। पास ही रखे टेलिफोन का चोंगा उठा कर आपरेटर को आदेश दिया, और मेरे सामने चल रहा था मेरा पसंदीदा सीन। और मोहम्मद रफी की उन दिनों की टटकी आवाज में आरोप लगाता गीत...

पतिवरता सीता माई को
तू ने दिया बनवास
क्यों न फटा धरती का कलेजा
क्यों न फटा आकाश
जुलुम सहे भारी जनक दुलारी
जनक दुलारी राम की प्यारी
फिरे मारी मारी जनक दुलारी
जुलुम सहे भारी जनक दुलारी
गगन महल का राजा देखो
कैसा खेल दिखाए
सीप का मोती, गंदे जल में
सुंदर कँवल खिलाए
अजब तेरी लीला है गिरधारी
जुलुम सहे भारी जनक दुलारी

परदे पर मैं देख रहा था लीला चिटणीस महल-जैसे घर के दरवाजे से बाहर निकल रही है। जुलुम सहे भारी जनक दुलारी। गगन महल का राजा पृथ्वीराज का क्रुद्ध और अपराध बोध से ग्रस्त क्लोजअप। बाहर बिजली कड़कड़ा रही है। मेघरेखा चमचमा रही है। कोई आदमी छाता लगाए घनघोर बरसात से भरी सड़क पार कर रहा है। दस बारह लोग तन्मय हो कर गा रहे हैं, गा क्या रहे गुहार कर रहे हैं। जुलुम सहे भारी जनक दुलारी। लीला चिटणीस मारी मारी गिरती पड़ती फिर रही है। नाली के पास बहते मानी में गिर पड़ती है। नवजात शिशु के रोने की आवाज आती है। सीप का मोती, गंदे जल में सुंदर कँवल खिलाए। अजब तेरी लीला है गिरधारी।

सशक्त मर्मस्पर्शी फिल्मांकन। गीत के भाव दर्शकों की संवेदनाओं को सीधा छूते हैं। दिलों पर गहरी चोट करते और पीड़िता के प्रति उनकी सहानुभूति जगाते हैं। जो कुछ गीत में सीता के लिए कहा जा रहा है, फिल्म में वह अभिनेत्री लीला चिटणीस पर घटित हो रहा है। गीत सीधे राम पर चोट कर रहा था। उसे अन्यायी करार दे रहा था। चेहरा पृथ्वीराज कपूर का था। सच कहें तो यही गीत आवारा फिल्म का मर्म था, उस का थीम सौंग था। यह गीत फिल्म को सीता बनवास और लवकुश प्रसंग का प्रतीक बना देता है।

मैं पूरी तरह विभोर था। मेरी तन्मयता राज से छिपी नहीं थी। सीन खत्म हुआ तो राज ने बताया और पूछा, 'अब तक किसी और ने भी यह सीन देखने की इच्छा प्रकट नहीं की। तुम ने यह क्यों देखना चाहा।' राज की नजर में अब तक मैं कोई अनोखी शै बन गया था। वह मुझे समझने की कोशिश कर रहे थे, मैं उन्हें। मैंने समझाने की कोशिश की, 'आप की फिल्मों ने देश को जिस तरह की एक नई सामाजिक सोच दी है, उस का एक महत्वपूर्ण घटक है यह दृश्य। इसी दृश्य ने मेरी मानसिकता को गढ़ा है।'

मैंने राज को यह भी बताया कि कई साल बाद जब मैंने अपनी विवादास्पद कविता राम का अंतर्द्वंद्व लिखी तो उस के पीछे का बीज यह गीत ही था और थे शैक्सपीयर की संदेहग्रस्त डेस्डेमोना और अपने से जूझते हैमलेट का टु बी और नाट टू बी प्रश्न। राज कपूर और उन के साले प्रेमनाथ दोनों ही कुशल शैक्सपीरियन अभिनेता थे। निश्चय ही राज को मेरा मैयार मिल गया होगा। उस शाम के अंत में मुझे पता चला कि राज ने मुझे पूरी तरह अपना लिया था।

पता नहीं क्यों, साथ ही साथ मेरे मुँह से यह भी निकल गया कि अगर इस गीत ने मुझे बनाया तो एक और फिल्मी गीत ने मुझे ढहाया भी था। यह सुन कर राज कपूर के एकदम चेतन हो जाने का अंदाजा मुझे कतई नहीं था। सब कुछ भूल कर उन्होंने पूछा कि यह दूसरा गीत क्या था।

मैं ने कहा, 'साहिर लुधियानवी का गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' का अंतिम गीत, यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।' गीतकार दुनिया के ऐब गिनाता रहता है। पूरी तरह शून्यवादी यह गीत पढ़तव्यं तब भी मरतव्यं नहीं, न पढ़तव्यं तब भी मरतव्यं से आगे बढ़ कर पुकार पुकार कर हर एक से कह रहा था - कर्म निरर्थक है। यह संसार तुम्हारे कर्म के लायक है ही नहीं। स्वयं जीवन ही व्यर्थ है।

मेरे लिए यह गीत ऐसे समय आया था जब सोवियत संघ में ख्रुश्चोव रिपोर्ट के बाद कम्युनिस्ट पार्टी और कम्युनिस्टों से मेरा मोह भंग हुआ था। रिपोर्ट तो वही कह रही थी, जो मैं पिछले कई सालों से कह रहा था। क्रूरता से मेरी आँखें खोलने वाली असल बात यह थी कि वही कामरेड जो कभी मेरी स्टालिन-निंदा पर नाराज हो कर स्टालिन का घनघोर समर्थन करते थे, वही अब उस के उतने ही घनघोर निंदक बन गए थे। मैं पूरी समझ गया कि किसी भी ऐसे संगठन का सदस्य बनने का मतलब है कठमुल्ला बनना, अपनी बुद्धि को किसी पेड़ पर टाँग आना। मास्को में बैठा नेता दिन कहे तो दिन, रात कहे तो रात। इस से अतिरिक्त तुम कुछ नहीं रह सकते।

प्यासा के इस नकारात्मक गीत ने मुझे गहरे अवसाद से तो भरा ही, एक अजीब शून्य में अधर लटका भी दिया था। मैंने राज कपूर से कहा, 'मैं अभी तक शून्य में हूँ। अपनी तलाश में हूँ।'

बात का रुख पलटने के लिए राज कपूर ने कहा, 'अब मेरी किसी फिल्म का जो भी कोई और गीत सुनना चाहो तो कहो।' मैं श्री 420 का अपना बेहद पसंद गीत मेरा जूता है जापानी भी चुन सकता था। लेकिन मैंने चुना प्यार हुआ इकरार हुआ। मेरी नजर में यह गीत और इसमें राज कपूर का नरगिस को अपनी छतरी के नीचे लेना भारतीय फिल्मों का सबसे महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय बिंब है। प्रेमी का प्रेमिका का सहभागी बन जाना। आज भी इस दृश्य के बड़े फोटो रेस्तरानों में लगे मिलेंगे। जिस किसी किताब में फिल्मों के इतिहास से चित्र हैं, उस में यह दृश्य सब से अधिक दिखाई देता है। अपने जीवन से एक घटना लिखता हूँ। हम लोग नेपियन सी रोड पर एक सतमंजिला इमारत में रहते थे। एक बरसाती दिन घर लौटते समय मैंने नीचे की मंजिल में रहने वाली श्रीमती वैद्य को अपनी छतरी में ले लिया। हम उस परिवार के लिए घनिष्ठ बन गए। यह था उस बिंब का जनमानस में बस जाने का प्रमाण।

मेरा वह चुनाव राज के प्रसन्न होने का कारण भी बन गया। गीत खत्म हुआ तो मैं कह बैठा, 'जिस दिन से बंबई आया हूँ जहाँ कहीं भी जाता हूँ तो वह जगह पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ, जहाँ यह गीत फिल्माया गया होगा।'

जवाब मिला, 'यह स्टूडियो में बना सैट था।'

मैं अड़ गया। 'नहीं। उसमें तो एक ट्रेन भी जाती है।'

राज एकदम बच्चों जैसे चहक उठे। कला निर्देशक आचरेकर को तलब किया गया कि मुझे उस सैट का मौडल दिखाएँ और बारीकियाँ समझाएँ। राज कपूर भी साथ थे। मैं ने देखे :

एक मिएचर सड़क… बिजली के छोटे छोटे खंबे जो धीरे धीरे अनुपात से और भी छोटे होते जा रहे हैं… कहीं घास का मैदान, घास जैसे रंग का कालीन जैसा फर्श… उतार चढ़ाव… दूर दाहिनी ओर छोटी सी रेल पटरी… कहीं कहीं सिगनल हैं… वे ऊपर नीचे किए जा सकते हैं… क्षितिज रेखा… उस के रंग बदले जा सकते हैं… पटरी पर खिलौना टाइप की विशेष रेल… आदेश मिलते ही चलने लगती है… कभी कभी धुआँ भी छोड़ती है… छुक छुक करती है… रेल के डिब्बों में लाइटें जलती बुझती हैं।

पूरे बालसुलभ उत्साह से दोनों मुझे बारीकियाँ समझा रहे हैं। मैं चमत्कृत हूँ, फिल्म निर्माण का एक और पहलू समझ रहा हूँ। बरसात के दृश्यों की लोकेशन शूटिंग नहीं की जाती। वे हमेशा स्टूडियो में नकली बारिश कर के शूट किए जाते हैं। जब जिस ऐंगल से जो शौट चाहिए उस के अनुकूल प्रकाश व्यवस्था केवल इनडोर ही संभव है।

अब फिर हम आडिटोरियम में है। बातचीत निर्माणाधीन फिल्म संगम की हो रही है। पृष्ठभूमि के तौर पर मुझे बताया जाता है कि इस फिल्म का आइडिया राज कपूर को मेहबूब की फिल्म अंदाज में काम करते करते ही आया था। उसमें भी राज कपूर दिलीप कुमार के साथ काम करना चाहते थे। लेकिन दिलीप राजी नहीं हुए। जब तक सही कलाकार न मिलें किसी कहानी पर फिल्म नहीं बनानी चाहिए। आइडिया ताक पर रख दिया गया। अब राजेंद्र कुमार की अभिनय कला के विकास के साथ वह फिर उभर आया। संगम उसी का परिणाम है।

राज कपूर अब तक मुझसे आश्वस्त हो चुके थे। पूरी तरह खुल गए थे। निस्संकोच बात कर रहे थे। मेरे सामने अब वह पूरी तरह खुली किताब थे। कभी वैजयंती माला की, कभी उन के प्रति अपने निजी रुझान की बात करते, कभी उस की शिकायत करते। बताया 'मैंने (राज कपूर ने) वैजयंती से संगम की बातचीत शुरू की तो सीधा जवाब नहीं मिला। एक बार मद्रास तार भेजा - संगम होगा कि नहीं। तत्काल जवाब आया - होगा, होगा, होगा। राज ने बताया कि यह जवाब फिल्म संवाद के तौर पर शामिल कर लिया गया। शैलेंद्र ने इसी पर गीत भी लिखा - मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमना का - बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं। कई बातें उन दोनों के निजी संबंध की थीं। वे मैंने न वह किसी को बताईं या लिखीं, न अब लिखूँगा। फिल्मी कलाकार अकसर हमसे बेहद निजी बातें कर बैठते हैं। मैंने और माधुरी ने हमेशा इतना संयम बरता कि वे उजागर न करें।

राज कहे जा रहे थे, 'अब फिर वैजयंती मद्रास जा बैठी है। शूटिंग पर आने से आनाकानी कर रही है। सभी लड़कियाँ ऐसी ही होती हैं। पहले हाँ कर देती हैं, फिर आनाकानी, किंतु परंतु, बहानेबाजी करती रहती हैं।'

इस सब से मैं सीख रहा था कि शूटिंग के लिए सभी प्रमुख कलाकारों की डेट (शूटिंग का समय) मिलना आसान नहीं होता। निर्माता या निर्देशक को उनके नखरे सहने को तैयार रहना पड़ता है।

उस शाम पहले तो मैंने फिल्म संपादन क्या होता है, कैसे किया जाता है, और संप्रेषण को प्रबलित करने में उस की क्या भूमिका होती है - यह जाना था। 'जुलुम सहे भारी' में संपादक ने विभिन्न शौटों को एक के बाद एक कैसे रखा था, उस क्रम से गीत के भाव दर्शक को वांछित रूप से प्रभावित करने में सफल थे।

यह भी सीखा कि कोई कितना ही बड़ा हो, फिल्मों में है तो भीतर से वह किसी भी कवि या चित्रकार जैसा ही कलाकार है, संवेदनशील इनसान है। सच्ची प्रशंसा का भूखा है। खुशामद की उसे गहरी पहचान है। कौन ऊपरी बात कर रहा है, कौन दिल से - यह वह आसानी से पहचान लेता है।

पता नहीं कैसे, किस के इशारे से, अब शैलेंद्र भी हमारे साथ थे, और हम दोनों राज कपूर से विदा ले रहे थे। हम चलने लगे तो राज ने मुझ से कहा, 'तुम शैलेंद्र के दोस्त हो। मेरा दर तुम्हारे लिए चौबीस घंटे खुला है।' जन्म और स्वभाव से पठान राज कपूर ने अपना यह वचन जब तक मुझ से संबंध रहा, हर दम हर घड़ी निभाया। जब भी मैंने फोन किया, वह मिले। कभी बिना बताए किसी काम से आर.के. स्टूडियो जाना हुआ तो पता नहीं कैसे राज तक समाचार पहुँच जाता और मुझे उन की निजी काटेज में बुला लिया जाता। उनके दिल की प्रियतम फिल्म 'मेरा नाम जोकर' की समीक्षा में मैंने बखिया उधेड़ दी। वह नाराज नहीं हुए। वह जानते थे, जो कुछ मैंने लिखा है ईमानदारी से लिखा है।

1978 में जब मैं माधुरी से जुदा हो कर दिल्ली वापस लौट रहा था, तो मेरी अपनी देखरेख में बने अंतिम अंक में मैंने अपने दोनों हीरो का अभिनंदन किया। पाठकों से बिदाई लेते अपने संदेश में मैंने शैलेंद्र के दो गीतों से उद्धरण दिए। एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो, यह दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो। और अंत में हम तो जाते अपने गाम, सब को राम राम राम। यह अभिनंदन पाने वाले शैलेंद्र तब तक हम सब से जुदा हो चुके थे। और राज कपूर को मुखपृष्ठ पर सजाया - एक सजावटी फोटोफ्रेम के भीतर उन का क्लोजअप और भीतर उन पर एक लेख। पता नहीं मेरा यह अभिनंदन वह समझे या नहीं। अब वह भी हमारे बीच नहीं हैं, जो उन से पूछ पाऊँ।


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